साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने पर बोले कथाकार संजीव, पुरस्कार सर माथे पर लेकिन देर से मिला, मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या

  • प्रदीप सरदाना 

वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्म समीक्षक 

वरिष्ठ कथाकार संजीव (Sanjeev) अपनी लंबी कहानियों के लिए प्रसिद्द रहे हैं। बरसों से लेखन दुनिया को समर्पित संजीव यूं अब तक लगभग 40 पुस्तकें लिख चुके हैं। जिनमें उनके दस से अधिक तो उपन्यास ही हैं। हाल ही में साहित्य अकादेमी (Sahitya Akademi) ने संजीव को उनके हिन्दी उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ के लिए अपना प्रतिष्ठित सम्मान देने की घोषणा की है।

नारी की व्यथा कथा कहता उनका यह उपन्यास 2020 में प्रकाशित हुआ था। अकादेमी के सचिव के श्रीनिवासराव ने 20 दिसंबर को 24 भाषाओं के लिए अपने साहित्य अकादेमी पुरस्कारों की घोषणा की। इन पुरस्कारों में 9 कविता संग्रह, 6 उपन्यास, 5 कहानी संग्रह, 3 निबंध और एक आलोचना की पुस्तक भी है। साहित्य अकादेमी देश का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार (Sahitya Akademi Award) है। इसलिए इसे पाने की इच्छा लगभग सभी लेखकों की रहती है।

हिन्दी में संजीव को यह पुरस्कार मिलने पर मैंने उन्हें बधाई देने के साथ उनकी प्रतिक्रिया पूछी। उन्होंने कहा-‘’मुझे यह सम्मान मिला तो खुशी तो है ही। हालांकि इस बात का दुख मुझे और मेरे कुछ दोस्तों को भी है कि मुझे यह पुरस्कार देर से मिला। यदि यह पहले मिलता तो ज्यादा अच्छा था। लेकिन ऐसे भी कितने ही लोग हैं जिन्हें यह अभी भी नहीं मिला, लेकिन मुझे मिल गया।  इसलिए यह पुरस्कार सर माथे पर।‘’

मैंने उनसे कहा- साहित्य अकादेमी एक भाषा के लिए साल में एक पुरस्कार देती है। इससे बहुत लोग इस पुरस्कार से वंचित रह जाते हैं। जबकि हिन्दी का रचना संसार दिन प्रतिदिन व्यापक होता जा रहा है।

इस पर संजीव बोले-‘’आपकी बात से सहमत हूँ। लेकिन 24 भाषाओं में कुछ ऐसी भाषाएँ हैं जिनमें लेखन बहुत कम होता है। उनमें भी सभी को एक पुरस्कार है। जबकि हिन्दी में इतने लेखक हैं उनके लिए भी एक। इसलिए अकादेमी को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे वर्ष में हिन्दी के एक से अधिक लेखक पुरस्कृत हो सकें। जिससे समय रहते यह प्रतिष्ठित सम्मान मिल सके तो अच्छा रहेगा। नहीं तो फिर राम प्रसाद बिस्मिल की पंक्तियाँ याद आएंगी- मिट गया जब मिटने वाला, फिर सलाम आया तो क्या, दिल की बर्बादी के बाद, उनका पयाम आया तो क्या।”

78 वर्षीय संजीव इन दिनों अस्वस्थ चल रहे हैं। इस कारण उनके लिए लेखन कार्य  तो दुर्भर है ही। घर से बाहर आना जाना भी कष्टदायक हो गया है। शायद कुछ इसलिए भी यह प्रतिष्ठित सम्मान उन्हें देर से मिलने पर उनकी पीड़ा झलक रही है।

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