भगवान शिव ने जब लिया अर्धनारीश्वर अवतार

सृष्टि के आदि में जब सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा रची हुई सारी प्रजाएं विस्तार को नहीं प्राप्त हुईं,  तब ब्रह्मा उस दुःख से दुखी हो चिन्ताकुल हो गये। उसी समय यह आकाशवाणी हुई-‘ब्रह्मन! अब मैथुनी सृष्टि की रचना करो। इस आकाशवाणी को सुनकर ब्रह्मा ने मैथुनी सृष्टि उत्पन्न करने में स्वयं को समर्थ न पाकर यों विचार किया कि शम्भु की कृपा के बिना मैथुनी प्रजा उत्पन्न नहीं हो सकती, तब वे तप करने को उद्यत हुए। ब्रह्मा के उस तीव्र तप से थोड़े ही समय में शिव जी प्रसन्न होकर पूर्ण सच्चिदानन्द की कामदा मूर्ति में प्रविष्ट होकर अर्धनारी नर के रूप में ब्रह्मा के निकट प्रकट हो गये।

ईश्वर ने कहा-महाभाग वत्स! मुझे तुम्हारा सारा मनोरथ पूर्णतया ज्ञात है मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं और तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट प्रदान करूंगा। यह कहकर शिव जी ने अपने शरीर के अर्ध भाग से शिवा देवी को पृथक कर दिया। तब शिव से पृथक होकर प्रकट हुई परमा शक्ति की ब्रह्मा जी विनम्र भाव से प्रार्थना करते हुए कहने लगे हे शिवे! हे शिव प्रिये। हे मातः। चराचर जगत की वृद्धि के लिये आप मुझे नारीकुल की सृष्टि करने के लिए शक्ति प्रदान करें, वरदेश्वरी। मैं आपसे एक और वर की याचना करता हूं, आप चराचर जगत की वृद्धि के लिये अपने एक सर्व समर्थ रूप से मेरे पुत्र दक्ष की पुत्री हो जाओ। भगवती शिवा ने तथास्तु ऐसा ही होगा कहकर वह शक्ति ब्रह्मा को प्रदान कर दी।

इस प्रकार शिवा देवी ब्रह्मा को अनुपम शक्ति प्रदान करके शम्भु के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं। तभी से इस लोक में स्त्री-भाग की कल्पना हुई और मैथुनी सृष्टि चल पड़ी। इससे ब्रह्मा को महान आनन्द प्राप्त हुआ।

नन्दीश्वरावतार का वर्णन

सनत्कुमार जी ने पूछा-हे नन्दीश्वर! आप महादेव के अंश से किस प्रकार उत्पन्न हुए और किस प्रकार शिवत्व को प्राप्त हुए? आप मुझे बताने की कृपा करें।

नन्दीश्वर बोले-हे सनत्कुमार! जिस प्रकार शिव जी के अंश से उत्पन्न होकर मैंने शिवत्व को प्राप्त किया है उसको आप सावधानीपूर्वक सुनिये।

शिलाद नामक एक धर्मात्मा मुनि थे। पितरों ने महर्षि शिलाद से सन्तान उत्पन्न करने का निवेदन किया, तब शिलाद ने उनका उद्धार करने की इच्छा से पुत्रोत्पत्ति करने का विचार किया तथा इस निमित्त इन्द्र को उद्देश्य करके बहुत समय तक अति कठोर तप किया। इन्द्र के प्रसन्न होने पर शिलाद ने अयोनिज अमर तथा उत्तम व्रत वाले पुत्र की कामना की। इन्द्र ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए देवाधिदेव महादेव रूद्र को प्रसन्न करने की प्रेरणा प्रदान की। तब शिलाद भगवान महादेव को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे।

शिव के प्रसन्न होने पर शिलाद ने उनसे कहा- प्रभो मैं आपके ही समान मृत्युहीन अयोनिज पुत्र चाहता हूं। त्रिनेत्र भगवान शिव प्रसन्नचित होकर बोले-हे विप्र। मैं नन्दी मान से आपके अयोनिज पुत्र के रूप में अवतरित होऊंगा और हे मुने। आप मुझ तीनों लोकों के पिता के भी पिता बन जायेंगे।

हे सनत्कुमार! कुछ समय बाद मेरे पिता शिलाद मुनि यज्ञ करने के लिए यज्ञस्थल का कर्षण करने लगे।

उसी समय यज्ञारम्भ से पूर्व ही शिव जी की आज्ञा से प्रलयाग्नि के सदृश देवीप्यमान होकर मैं उनके पुत्र रूप में प्रकट हुआ। उस समय वहां पर बहुत बड़ा उत्सव हुआ। सभी देवगण हर्षित होकर मेरे तथा मुझे उत्पन्न करने वाले शिवलिंग का पूजन करके उसकी स्तुति करने लगे।

शिलाद बोले- हे सुरेश्वर! आपने मुझे आनन्दित किया है अतः आपका नाम नन्दी होगा और इसलिए आनन्द स्वरूप आप प्रभु जगदीश्वर को मैं प्रणाम करता हूं।

नन्दीश्वर बोले-इतना कहकर मुझे साथ लेकर वे पर्णकुटीरों में चले गये।

हे महामुने। जब मैं महर्षि शिलाद की कुटी में गया तो मैंने अपने उस शरीर को त्यागकर मनुष्य रूप धारण कर लिया। पुत्रवत्सल शिलाद ने मेरा समस्त जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न किया। उन्होंने वेदों तथा समस्त शास्त्रों का भी अध्ययन सम्पन्न कराया। सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर मित्र और वरुण नाम वाले दो मुनि आश्रम पर पधारे। उन्होंने कहा हे तात आपके पुत्र सम्पूर्ण शास्त्रों में पारंगत हैं किंतु दुःख की बात है कि ये अल्पायु हैं अब इस वर्ष से अधिक इनकी आयु नहीं है। यह सुनकर शिलाद दुःख से व्याकुल होकर अत्यधिक विलाप करने लगे।

तब मैंने कहा-हे पिताजी। देवता, दानव, यमराज, काल अथवा अन्य कोई भी प्राणी मुझे मार नहीं सकता, आप दुखी न हों। पिता के पूछने पर नन्दीश्वर बोले-मैं न तो तप से और न विद्या से ही मृत्यु को रोक सकूंगा मैं तो केवल महादेव के भजन से मृत्यु को जीतूंगा। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है।

नन्दिकेश्वर का अभिषेक एवं विवाह

नन्दीश्वर कहते हैं–इसके अनन्तर वन में जाकर धीरतापूर्वक कठोर तप करते हुए रुद्रमंत्र का जप करने लगा। मेरी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान शंकर ने मुझसे कहा-हे महाप्राज्ञ! तुमको मृत्यु से भय कहां? मैंने ही उन दोनों ब्राह्मणों को भेजा था। तुम तो अपने पिता एवं सुहृदजनों के सहित अजर-अमर दुख रहित, अविनाशी, अक्षय और मेरे सदाप्रिय गणपति हो गये। इस प्रकार कहकर कृपानिधि शिव ने सहत्र कमलों की बनी हुई अपनी शिरोमाला को उतार कर मेरे कंठ में पहना दिया है।  हे विप्र! उस पवित्र माला के गले में पड़ते ही मैं तीन नेत्र एवं दस भुजाओं से युक्त होकर दूसरे शिव के समान हो गया। इसके बाद शिवजी ने पार्वती जी से कहा मैं नन्दी को अभिषिक्त कर इसे गणेश्वर बनाना चाहता हूं, इसमें तुम्हारी क्या सम्मति है?

उमा बोले हे परमेश्वर आप इस नन्दी को अवश्य ही गणेश्वर प्रदान करें। तदनन्तर भगवान शंकर ने अपने श्रेष्ठ गणाधिपों का स्मरण किया। उनके स्मरण करते हुए असंख्य गणेश्वर वहां उपस्थित हो गये। तब शिव जी बोले-यह नन्दीश्वर मेरा परम प्रिय पुत्र है अतः तुम लोग इसे सभी गणों का अग्रणी तथा सभी गणाध्यक्षों का ईश्वर बनाओ-यह मेरी आज्ञा है। यह नन्दीश्वर आज से तुम सभी का स्वामी होगा।

शिव जी की आज्ञा से स्वयं ब्रह्मा ने एकाग्रचित होकर मेरा समस्त गणाध्यक्षांे के अधिपति पद पर अभिषेक किया।  नन्दीश्वर ने ब्रह्मा, विष्णु और श्री हरि के चरणों में प्रणाम किया। भगवान् शिव पत्नी सहित मुझसे प्रेमपूर्वक बोले- सत्पुत्र! यह तुम्हारी प्रिया सुयशा और तुम मेरी बात सुनो। तुम मुझे परम प्रिय हो। जहां मैं रहूंगा, वहां तुम्हारी स्थिति होगी और जहां तुम रहोगे, वहां मैं उपस्थित रहूंगा।

महाभागा उमा देवी भी मुझे मेरी पत्नी सुयशा को अभीष्ट वर प्रदान किया। तत्पश्चात् भगवान् शिव मुझे अपनाकर उमा सहित वृष पर आरूढ़ हो अपने निवास-स्थान पर चले गये।

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