मिथिलांचल के अमर शहीदों को कंदर्पीघाट स्तम्भ के समक्ष दी गई श्रद्धांजलि

मधुबनी । जिला के ऐतिहासिक कंदर्पीघाट स्तम्भ के समक्ष शुक्रवार को मिथिलांचल के अमर शहीदों को श्रद्धांजलि दी गई। मिथिला विजय स्तम्भ कन्दर्पीघाट के स्थापना दिवस पर शुक्रवार को आयोजित समारोह में अमर शहीदों को श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया। अवसर पर इलाका के गणमान्य लोगों ने मिथिला विजय स्तम्भ पर पुष्प अर्पित कर शहीदों को श्रद्धांजलि दी।

स्थापना दिवस 20 जनवरी 2010 में झंझारपुर के तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी डाॅ. रंगनाथ चौधरी के नेतृत्व में कंदर्पीघाट मिथिला स्तम्भ निर्माण हुआ था।डा शशिनाथ झा, वर्तमान कुलपति कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के पौरोहित्य में आयोजित एक भव्य समारोह में मिथिला विजय स्तम्भ की स्थापना हेतु शिलान्यास किया।बताया गया कि मिथिलेश राजा राघव सिंह के पुत्र नरेन्द्र सिंह के समय कन्दर्पीघाट युद्ध हुआ । उस समय बिहार बंगाल का नवाब अलीवर्दी खाँ का शासन था। अलीवर्दी का दामाद जयनुद्दीन हैबतजंग और नरेन्द्र सिंह में मित्रता थी। अलीवर्दी का एक जांबाज सेनापति मुस्तफा खान बबरजंग मराठों के आक्रमण से अलीवर्दी को बचाता रहा।

सेनापति भास्कर को मारने में वह कामयाब हुआ। अलीवर्दी ने उसे मुँहमाँगा इनाम का आश्वासन दिया था।इस एवज में उसने सोलह लाख रुपये और पटना की सूबेदारी की मांग की। राशि दे दी गई पर अलीवर्दी अपने दामाद हैबतजंग को सूबेदारी देना चाहता था। वैमनस्यता बढ़ती गई और बबरजेग ने 1745 में मुंगेर फतह करते हुए पटना पर आक्रमण कर दिया। नरेन्द्र सिंह ने जाफर खां के बाग में हुए युद्ध में जयनुद्दीन का साथ दिया। नरेन्द्र स्टेट के अजित शाह ने भी उनका साथ दिया। इस युद्ध में दोनों महावीरों ने अनुपम वीरता प्रदर्शित की थी। बबरजेग को पराजित होकर भागना पड़ा। नरेन्द्र सिंह की सहभागिता और शौर्य से प्रभावित होकर अलीवर्दी ने तिरहुत से कर वसूली शिथिल कर दी। 1748में हैबतजंग का कत्ल कर दिया गया। 1752में राजा रामनारायण बिहार का डिप्टी गवर्नर बना। तिरहुत से कर नहीं आता देख उसने दूत को भेजा।

नरेन्द्र सिंह ने अपना कर लड़ाई केशदान में देने की बात कही। दूतों ने बढ़ा-चढ़ाकर कहा कि वे स्वतंत्र राजा बन गए हैं। कर बिना युद्ध के नहीं देंगे। रामनारायण ने दरभंगा के फौजदार भिखारी महथा को तिरहुत फतह करने का आदेश दिया। भिखारी महथा पांच हजार की शाही सेना के साथ तिरहुत पर चढ़ गया।

नरेन्द्र सिंह ने कन्दर्पीघाट में युद्ध की मोर्चाबंदी की। छिटफुट झड़प रामपट्टी से ही शुरू हुई। सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी 4 अक्टूबर से 7 अक्टूबर 1753 को भयानक युद्ध हुआ। मिथिला की आसन्न पराजय को उमराव सिंह ने अपनी शहादत के रक्त से विजय तिलक में परिणत कर दिया । स्वतंत्रता संग्राम के महानायक वीर कुंवर सिंह के पितामह थे। नरेन्द्र सिंह ने लोगों में देशभक्ति का संचार किया। वे स्वयं रण- संचालन कर रहे थे। उनके आह्वान पर आम मैथिलों ने जाति-धर्म से ऊपर उठकर घरेलू हथियारों से रण में भाग लिया और सैनिकों के साथ मिलकर मिथिला की बलिवेदी पर शीशोत्सर्ग कर विजयश्री का वरण किया।

इस युद्ध में हताहतों की विपुल संख्या के करण संस्कार की समस्या हुई। शहीदों के शरीर से रक्त और बालू सने जनेऊ उतार कर प्रतीकात्मक संस्कार किया गया। तौलने पर यह 74 सेर हुआ। यह 74 अंक मैथिल परम्परा में रूढ़ हुआ। लोग गोपनीय पत्र पर 74 लिखने लगे जिसका अभिप्राय था कि पत्रादेशी के अतिरिक्त कोई उसे न पढ़े। ऐसा करने पर उसे उतने ब्रह्महत्या का पाप लगेगा जितनी संख्या में यज्ञोपवीत धारी इस युद्ध में शहीद हुए थे। इस युद्ध में शहीदों की स्मृति में मिथिला विजय स्तम्भ का निर्माण कराया गया।

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