वोट जाति पर नहीं, काम पर मिलने लगे

मुंबई: कांग्रेस के पूर्व उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने विनायक दामोदर सावरकर के गृहराज्य महाराष्ट्र में ही सावरकर पर प्रहार कर जैसे मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि उन्होंने ऐसा किया ही क्यों? राहुल तो भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हैं। इस यात्रा का उद्देश्य भारत को जोड़े रखना (जुड़ा तो पहले से है) ही होना चाहिए था। फिर इस यात्रा में सावरकर को घुसाने की जरूरत क्यों पड़ गई?

महाराष्ट्र में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ अब तक असरहीन ही रही है। यात्रा जिस दिन महाराष्ट्र में प्रवेश करने वाली थी, उसी दिन न्यायालय के आदेश पर प्रतापगढ़ किले के एक छोर पर बनी अफजल खान की मजार तुड़वा दी गई। यह काम वर्षों से टाला जा रहा था, इसलिए तोड़े जाने के बाद यह घटना सुर्खियों में रही। इसके दो दिन बाद राकांपा विधायक जितेंद्र आह्वाड को मल्टीप्लेक्स में दर्शकों से मारपीट करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।

राहुल गांधी सड़कों पर चलते रहे, लेकिन सुर्खियों की मंजिल उनसे दूर भाग रही। इसी बीच फिर शिवसेना के युवा नेता आदित्य ठाकरे को साथ लेकर सुर्खियां बटोरने का प्रयास हुआ। लेकिन उसमें भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली। ऐसे में हताश राहुल ने अपना आखिरी हथियार निकाला सावरकर की बदनामी का। यह एकमात्र मुद्दा बचा था कांग्रेस और राहुल के पास, जिससे वे सुर्खियों में बने रह सकते थे।

महाराष्ट्र में यदि वे सूखे-सूखे निकल जाते, तो 21 नवंबर से उन्हें मध्य प्रदेश में प्रवेश करना है, जहां वर्षों से कांग्रेस सूखे जैसी स्थिति का सामना करती आ रही है। देखा यह गया है कि राहुल जब मोदी के खिलाफ बोलते हैं, तो लोग ध्यान नहीं देते। वे अर्थव्यवस्था के बारे में सवाल उठाते हैं तो लोग ‘मौनमोहन’ के कार्यकाल की ओर देखने लगते हैं। वे विदेश नीति पर सवाल उठाना चाहते हैं तो ‘भारत हित सर्वोपरि’ की वर्तमान विदेश नीति उन्हें कुछ बोलने का मौका ही नहीं देती। इस नीति की तो विदेशी राष्ट्राध्यक्ष भी प्रशंसा कर रहे हैं। महंगाई का मुद्दा वे उठाना चाहते हैं, पर श्रीलंका जैसे हालात हमारे यहां नहीं हैं और मंदी का असर भी यहां विकसित देशों से कम दिखाई दे रहा है, इसी से लोग संतुष्ट दिखते हैं।

सावरकर ही क्यों
क्योंकि पिछली किसी भी सरकार से ज्यादा मोदी सरकार सावरकर की नीतियों पर अमल करती दिख रही है। सावरकर प्रखर राष्ट्रवादी थे। उन्होंने यह बात स्पष्ट रूप से सामने रखी कि भारत हिंदू राष्ट्र है, हिंदुओं की पितृभूमि व पुण्यभूमि है। सावरकर ने हिंदुत्व को व्याख्यायित किया। आज मोदी राज में वही हिंदुत्व सरकार की नीति का हिस्सा बन गया है। सीएए उसी का परिणाम था। उसे रोकने में कांग्रेस नाकाम रही। आजकल मंत्र सावरकर का और तंत्र मोदी-शाह का दिखाई दे रहा है। ऐसे राष्ट्रयोग का कोई जवाब कांग्रेस के पास नहीं है, तो राहुल के लिए आसान तरीका यही था कि सावरकर को बदनाम करें। हिंदू को हिंदू के नाते राजनीति में खड़े होना चाहिए, यह उनकी अवधारणा थी।

सावरकर द्वारा बताया गया ‘राजनीति के हिंदूकरण’ का व्यावहारिक मार्ग महाराष्ट्र में बालासाहब ठाकरे ने और फिर देश में नरेन्द्र मोदी ने अपनाया। जातिभेद भुलाकर हिंदुओं को राजनीतिक ताकत बनने का मंत्र सावरकर ने दिया था। मोदी-शाह ने उसके आधार पर देश की राजनीति ही बदल दी। वोट जाति पर नहीं, काम पर मिलने लगे हैं। कांग्रेस की हताशा का यह भी एक बड़ा कारण है। भारत की विदेश नीति कैसी हो, इसका वर्णन करते हुए सावरकर ने कहा था कि ‘निर्बलों की तटस्थता निरर्थक’ होती है। मोदी शासन में इस पर कड़ाई से अमल होते दिख रहा है। उसके अच्छे परिणाम भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं। वर्ष 1964 के ‘साहित्यलक्ष्मी’ दिवाली संस्करण के आलेख में सावरकर ने गुटनिरपेक्ष विदेश नीति की धज्जियां उड़ाते हुए लिखा था कि सामरिक यंत्र-तंत्र और शस्त्रास्त्र निर्मिति में आत्मनिर्भरता हासिल कर बलप्राप्ति किए बिना गुटनिरपेक्षता की नीति असरदार नहीं हो सकती।

‘मेक इन इंडिया’ के तहत रक्षा सामग्री उत्पाद के क्षेत्र में पिछले आठ वर्षों में हुई प्रगति का अनुभव सभी ने किया है। ‘किसी भी हाल में देशहित से कोई समझौता नहीं’ यह विदेश नीति का मुख्य सूत्र उभरते हुए दिखाई देने लगा है। इस सुधार का विरोध किया नहीं जा सकता, तो विरोध किसका करें? सावरकर का! यह है कुटिल कांग्रेस नीति। सावरकर का एक और सूत्रवाक्य था, ‘गैर-हिंदुओं का राष्ट्रीयकरण’ करना। गैर-हिंदू आपनी भारतीय पहचान नकारें नहीं, उसे स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय भूमिका अपनाएं, ऐसा आह्वान सावरकर ने किया था। मोदी सरकार की ‘सबका साथ सबका विकास’ में यही भाव निहित है, जिस कारण कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति ध्वस्त हो गई है।

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