भारत अमेरिका एवं चीन के बीच में शक्तियों के संतुलन का एक अहम किरदार बनकर उभरा

एक लंबी इस्लामी-ब्रिटिश परतंत्रता के बाद देश जब स्वतंत्र हुआ तो दुनिया ने इसके विफल होने की भविष्यवाणी की थी। भारत ने अपनी जिजीविषा एवं संघर्ष के बल पर एक ऐसा मुकाम हासिल किया है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य न होते हुए भी आज विश्व के अधिकांश स्थायी एवं अस्थायी सदस्य भारत के विचारों या पक्ष को जानने के लिए लालायित रहते हैं। यदि हम अपने 75 वर्षों की विदेश नीति पर विचार करें तो पाते हैं कि दुनिया के अन्य देशों के द्वारा खड़ी की गई समस्याएं वास्तव में भारत के लिए मुख्य बाधाएं नहीं थीं, अपितु भारत के द्वारा स्वयं से बनाई गई कई वैचारिक हठधर्मिताएं थीं जिस कारण भारत अपने महत्व के साथ विश्व मंच पर नहीं आ पा रहा था।

बीते माह नौ अक्टूबर को भारतीय विदेश सेवा दिवस के अवसर पर विदेश मंत्री डा. जयशंकर ने कहा, ‘आने वाले समय में भारतीय राजनयिक भारत की वैश्विक पहचान एवं हितों को और अधिक मजबूती से विश्व मंच पर रखते हुए दिखेंगे। ऐसे भारतीय राजनयिक वर्ष 2047 तक भारत के बड़े लक्ष्यों की पूर्ति करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे।’ इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत ने कितनी तेजी से अपनी ‘साफ्ट स्टेट’ की पहचान को छोड़कर एक मजबूत एवं स्पष्ट हितों वाले देश के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर ली है। भारत की मुखर विदेश नीति ने सबका ध्यान आकर्षित किया है।

भारतीय विदेश नीति
भारत की विदेश नीति का पहला चरण 1947 में प्रारंभ होकर 1962 तक चलता है। यह आशापूर्ण गुटनिरपेक्षता का दौर रहा। वर्ष 1962 के भारत चीन युद्ध के साथ ही गुटनिरपेक्षता के इस आशावादी सिद्धांत का एक निराशाजनक अंत हुआ। वर्ष 1962 से 1971 तक भारत की विदेश नीति का दूसरा दौर चला जिसे हम यथार्थवाद एवं सुधारों का दौर कह सकते हैं। वर्ष 1964 में भारत ने अमेरिका के साथ रक्षा समझौता किया।

वर्ष 1962 के चीन आक्रमण ने भारत की राजनीति को देश की सुरक्षा राजनीति एवं आर्थिक संसाधनों पर विशेष रूप से बल देने वाली नीतियों की तरफ मोड़ा। इसके बाद तीसरा दौर प्रारंभ होता है 1971 से जो 20 वर्ष के लंबे कालखंड यानी 1991 तक चला। इस दौर में भारत का प्रारंभिक ध्यान अपने क्षेत्रीय संसाधनों को सहेजने पर था। इसका प्रारंभ पाकिस्तान के साथ युद्ध एवं बांग्लादेश के निर्माण के साथ हुआ, परंतु दुर्भाग्य से इसका अंत श्रीलंका में भारतीय शांति सेना की कार्रवाई के एक दुखद अध्याय के साथ हुआ। हमारी विदेश नीति का चौथा दौर 1991 से लेकर 1999 तक चला जिसमें रणनीतिक एवं कूटनीतिक नीतियों के साथ-साथ देश को आगे बढ़ने के लिए आर्थिक नीतियों का भी समावेशन करना पड़ा।

यह वह दौर था जब विश्व शीत युद्ध खत्म होने के बाद पूरी तरह से एक ध्रुवीय या अमेरिका आधारित बन गया था। इस दौर में भारत ने आर्थिक एवं कूटनीतिक क्षेत्रों में स्वयं को बहुत तेजी से स्थापित किया। अमेरिका के साथ अपने संबंधों को सुधारने के क्रम में बड़ा खतरा मोल लेते हुए 1998 में भारत ने अपना दूसरा नाभिकीय परीक्षण किया। नाभिकीय परीक्षण एवं कारगिल में पाकिस्तान को धूल चटाने के कारण वैश्विक स्तर पर भारत का महत्व तो बढ़ा ही, भारत को व्यावहारिक तौर पर विदेश नीति के परिवर्तन का लाभ भी स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। इसके बाद पांचवां दौर वर्ष 2000 से 2013 तक चला। इस दौर में भारत अमेरिका एवं चीन के बीच में शक्तियों के संतुलन का एक अहम किरदार बनकर उभरा। इस दौर में भारत की प्रासंगिकता पूरे विश्व में तेजी से बढ़ी।

वर्तमान स्वर्णिम दौर
भारतीय विदेश नीति में अभूतपूर्व परिवर्तन तब आना प्रारंभ हुआ जब छठा दौर प्रारंभ हुआ एवं केंद्र में 2014 में भाजपा की सरकार बनी। यह दौर ऊर्जावान कूटनीति एवं शक्तिशाली निर्णयों का है। डा. जयशंकर के अनुसार, यह स्वर्णिम दौर भारत के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रारंभिक दौर है। वर्तमान में भारत की विदेश नीति पांच प्रमुख बिंदुओं पर कार्य कर रही है। इसमें पहला मुख्य बिंदु है यथार्थवाद। वर्तमान विदेश नीति पूरी तरह से यथार्थवादी है, जिसका उदाहरण हमें यूक्रेन संकट के दौरान रूस के साथ कच्चे तेल की खरीद जैसे निर्णयों में देखने को मिलता है। इसका दूसरा प्रमुख बिंदु है अर्थव्यवस्था संचालित कूटनीति। इस कारण वर्तमान में भारत की विदेश नीति आर्थिक लाभ के द्वारा ही सर्वाधिक प्रभावित हो रही है।

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