Sahitya Akademi Pravasi Manch: मन सरहदों में नहीं बसता है – मृदुल कीर्ति

नई दिल्ली। साहित्य अकादेमी (Sahitya Akademi) के प्रतिष्ठित कार्यक्रम प्रवासी मंच (Pravasi Manch) में 10 अप्रैल को आस्ट्रेलिया से पधारी विदुषी मृदुल कीर्ति (Mridul Kirti) ने ‘आर्ष ग्रंथों की काव्य धारा’ विषय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने आर्ष ग्रंथों की उपयोगिता और उनके अनुवाद संबंधी अनुभवों को भी श्रोताओं के साथ साझा किया।

उन्होंने अपनी बात दर्शन के अर्थ से शुरू की जिसका सामान्य अर्थ तो देखना होता है लेकिन देखे हुए के पीछे का देखना उसका तात्त्विक अर्थ होता है। यानी बीज में वृक्ष को देख लेना दृष्टि नहीं दर्शन है। उन्होंने वेद, उपनिषद्, श्रीभगवदगीता आदि के उदाहरण देते हुए बताया कि हमारी सारी ज्ञान परंपरा में चिंतन की एक निरंतरता है। जहाँ उपनिषद् हमें त्याग करते हुए भोग की प्रवृत्ति में लिप्त होने का संदेश देते हैं वही संदेश श्रीभगवदगीता में पहुँचते-पहुँचते निष्काम काम (कर्मयोग) में बदल जाता है।

उधर अनुवाद की कठिनाई के बारे में बताते हुए मृदुल कीर्ति ने कहा कि पहले तो काव्य का अनुवाद फिर उसकी आध्यमिकता और व्यक्त चिंतन की रक्षा करते हुए उनको निर्धारित छंदों में ढालना अपने आपमें एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है। उन्होंने अपने अनुवादों के कई उदाहरण खड़ी बोली हिंदी, ब्रज और अवधी में श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत किए। अपने वक्तव्य के बाद उन्होंने उपस्थित श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिए। एक प्रश्न जो परिवेश निर्माण को लेकर था, उसके जवाब में कहा कि मन सरहदों में नहीं बसता है। वैसे ही परिवेश भी हम जैसा चाहे वैसा बना सकते हैं। यह हमारी चेतना का स्तर निर्धारित करता है कि हम कहाँ और किसी भी परिवेश में अपना रचना-धर्म कैसे निभा रहेे हैं। आस्ट्रेलिया के या पश्चिम के परिवेश पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि वहाँ का परिवेश भौतिकवादी है। लेकिन वह लोग भी भारतीय योग और अध्यात्म में गहरी रुचि ले रहे हैं।

ज्ञात हो कि मृदुल कीर्ति ने सामवेद, ईशादि नौ उपनिषद्, श्रीभगवदगीता, विवेक चूणामणि और पतंजलि योग-दर्शन का काव्यानुवाद किया है और उसके लिए पुरस्कृत भी हुई हैं। कार्यक्रम के आरंभ में उनका स्वागत अंगवस्त्रम् एवं साहित्य अकादेमी की पुस्तके भेंट करके किया गया।

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